एक किताब तकिये पे सर रख कर, शायद सो गई।
एक और पन्ने की शायद आखिरी लाइन हो गयी।
सो गई वो, ताकि कुछ और ख्वाब देख सके, बंद आंखों से।
कर दे आज़ाद उन ख़्वाबों को जाग कर जो झांक रहे सलाखों से।
फिर एक नया पन्ना लिखे, जब उठे वो नींद से, सवेरे की धूप में।
जो भी देखा था सोते हुए, मेहनत से ढाल दे उसे एक रूप में।
एक और पन्ना, इस तरह, इस किताब में जुड़ जाएगा।
जो पनप रहा आज बंद आंखों में, कल किसी की प्रेरणा बन जायेगा
एक एक करके, एक एक ख्वाब, पन्ने की शक्ल लेता जाएगा।
मुकम्मल होगी ये किताब, कि कोई ख्वाब न बाकी रह जायेगा।
शायद उस दिन, मुझे भी इस किताब का, हर पन्ना ज़बानी याद हो।
मैं रहूँ न रहूँ पढ़ने को, पर ज़माने की ज़बान पर ये किताब आबाद हो।